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Showing posts from 2016

सनातन धर्म में नया साल कब मनाना चाहिए

हिन्दू नया साल संपादित करें हिन्दुओं का नया साल चैत्र नव रात्रि के प्रथम दिन यनि गुदी पर हर साल चीनी कैलेंडर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। यह प्रायः २१ जनवरी से २१ फ़रवरी के बीच पड़ता है। भारतीय नव वर्ष संपादित करें भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है। पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से १३ अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार १४ मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिळ नव वर्ष भी आता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग+आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु १३ या १४ अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल १५ जनवरी को नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह १९ मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता...

भाई द्विज पूजा विधि

इस पूजा में भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, पान, सुपारी मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे धीरे पानी हाथों पर छोड़ते हुए कुछ मंत्र बोलती हैं जैसे "गंगा पूजे यमुना को यमी पूजे यमराज को, सुभद्रा पूजा कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई की आयु बढ़े" इसी प्रकार कहीं इस मंत्र के साथ हथेली की पूजा की जाती है " सांप काटे, बाघ काटे, बिच्छू काटे जो काटे सो आज काटे" इस तरह के शब्द इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि आज के दिन अगर भयंकर पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। कहीं कहीं इस दिन बहनें भाई के सिर पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर हथेली में कलावा बांधती हैं। भाई का मुंह मीठा करने के लिए उन्हें माखन मिस्री खिलाती हैं। संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इस सन्दर्भ में मान्यता यह है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बह...

भाई द्विज की कथा

कार्तिक  मास के  शुक्ल पक्ष  की  द्वितीया  तिथि को मनाए जाने वाला हिन्दू धर्म का पर्व है जिसे  यम द्वितीया  भी कहते हैं। भाईदूज  में हर बहन रोली एवं अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीष देती हैं। भाई अपनी बहन को कुछ उपहार या दक्षिणा देता है। भाईदूज दिवाली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है एवं बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं। इस त्योहार के पीछे एक किंवदंती यह है कि  यम  देवता ने अपनी बहन यमी ( यमुना ) को इसी दिन दर्शन दिया था, जो बहुत समय से उससे मिलने के लिए व्याकुल थी। अपने घर में भाई यम के आगमन पर यमुना ने प्रफुल्लित मन से उसकी आवभगत की। यम ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि इस दिन यदि भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उनकी मुक्ति हो जाएगी। इसी कारण इस दिन  यमुना नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है। इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी ...

भाई द्विज की पूजा की कथा

भाई दूज  का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है।  यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, 'भाई दूज' का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास की द्वितीया को मनाया जाता है। भैया दूज को भ्रातृ द्वितीया भी कहते हैं। इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन के पावन संबंध व प्रेमभाव की स्थापना करना है। इस दिन बहनें बेरी पूजन भी करती हैं। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। इस दिन बहनें भाइयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती हैं। यदि गंगा यमुना में नहीं नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए। यदि बहन अपने हाथ से भाई को जीमाए तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं। इस दिन चाहिए कि बहनें भाइयों को चावल खिलाएं। इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है।...

जानिए क्यों खास है आज का करवा चौथ और कब और कहाँ से परंपरा बन गयी करवा चौथ मानाने की

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आज देश के हर कोने में महिलाएं करवा चौथ का व्रत रखने लगी हैं। इस बार करवा चौथ का चांद बेहद खास है क्योंकि 100 साल बाद एक महासंयोग बन रहा है। करवा चौथ बुधवार को है और इसी दिन गणेश चतुर्थी और श्री कृष्ण का रोहिणी नक्षत्र भी है। यानि इस बार व्रत करने से मिलेगा 100 व्रतों का वरदान। करवा शब्द का मतलब होता है मिट्टी का बना घड़ा। और चौथ का अर्थ है कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष का चौथा दिन। यानि करवा चौथ हर साल कार्तिक मास के चौथे दिन मनाया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि शुरू से ही ये व्रत पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता था। ये व्रत कभी पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी फसल की कामना से शुरू हुआ था। तब रबी की फसल बोने के समय बड़े-बड़े मिट्टी के कलशों में गेहूं भरा जाता था। इन कलशों को करवा कहते थे। लेकिन वक़्त के साथ करवा चौथ का अर्थ और मायने पूरी तरह से बदल गए। पंजाब-हरियाणा में करवे में पानी और फूल डालने का चलन है तो राजस्थानियों में करवे को चावल और गेहूं से भरा जाता है। वहीं यूपी और एमपी में करवे को मिठाई से भरा जाता है। खासतौर पर चावल के लड्डू से। चांद को देखने का तरीका भी अलग-अलग ह...

नवग्रह शांति के लिए मंत्र और उपाय ।

ग्रहोंकी स्थापनाके लिये ईशानकोणमें चार खड़ी पाइयों और चार पड़ी पाइयोंका चौकोर मण्डल बनाये । इस प्रकार नौ कोष्ठक बन जायेंगे । बीचवाले कोष्ठकमें सूर्य, अग्निकोणमें चन्द्र, दक्षिणमें मङ्गल, ईशानकोणमें बुध, उत्तरमें बृहस्पति, पूर्वमें शुक्र, पश्‍चिममेंशनि, नैऋत्यकोणमें राहु और वायव्यकोणमें केतुकी स्थापना करे । अब बायें हाथमें अक्षत लेकर नीचे लिखे मन्त्र बोलते हुए उपरिलिखित क्रमसे दाहिने हाथसे अक्षत छोड़्कर ग्रहोंका आवाहन एवं स्थापना करे । १- सूर्य (मध्यमें गोलाकार, लाल) सूर्यका आवाहन (लाल अक्षत-पुष्प लेकर) - ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्न मृतंमर्त्यंच । हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भूवनानि पश्यन् ॥ ॐ जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाधुतिम् । तमोऽरिं सर्वपापघ्न सूर्यमावाहयाम्यहम् ॥ ॐ भूभुर्वः स्वः कलिंग देशोद्‍भव काश्यपगोत्र रक्‍तवर्णाभ सूर्य । इहागच्छ इहतिष्ठ ॐ सूर्याय नमः, श्री सूर्यमावाहयामि स्थापयामि ॥ २- चन्द्र (अग्निकोणमें, अर्धचन्द्र, श्‍वेत) चन्द्रका आवाहन (श्‍वेत अक्षत-पुष्पसे) - ॐ इमं देवा असपत्‍न सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्र...

क्या है काल सर्प दोष कैसे पाएं इससे छुटकारा जानिए ।

कालसर्प दोष शांति आपकी कुण्डली में कालसर्प योग है इस बात का पता कुण्डली में ग्रहों की स्थिति को देखकर पता चलता है लेकिन कई बार जन्म समय एवं तिथि का सही ज्ञान नहीं होने पर कुण्डली ग़लत हो जाती है. इस तरह की स्थिति होने पर कालसर्प योग आपकी कुण्डली में है या नहीं इसका पता कुछ विशेष लक्षणो से जाना जा सकता है. कालसर्प के लक्षण कालसर्प योग से पीड़ित होने पर स्वप्न में मरे हुए लोग आते हैं. मृतकों में अधिकांशत परिवार के ही लोग होते हैं. इस योग से प्रभावित व्यक्ति को सपने में अपने घर पर परछाई दिखाई देती है. व्यक्ति को ऐसा लगता है मानो कोई उसका शरीर और गला दबा रहा है. सपने में नदी, तालाब, समुद्र आदि दिखाई देना भी कालसर्प योग से पीड़ित होने के लक्षण हैं. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार इस योग से प्रभावित व्यक्ति समाज एवं परिवार के प्रति समर्पित होता है वे अपनी निजी इच्छा को प्रकट नहीं करते और न ही उन्हें अपने सुख से अधिक मतलब होता है. इनका जीवन संघर्ष से भरा होता है. बीमारी या कष्ट की स्थिति में अकेलापन महसूस होना और जीवन बेकार लगना ये सभी इस योग के लक्षण हैं. इस प्रकार की स्थिति का सामना अगर आपक...

उज्जैन तीर्थ स्थल का इतिहास ।

उज्जयनी का धार्मिक एवं संस्कृतिक इतिहास अवंती के धार्मिक इतिहास का प्रारंभ ऋषि सरभंग के काल से माना जाता है जो की रामायण में राम और वाल्मीकि के समकालीन कहे गए है पली ग्रन्थ ( सरभंग जातक) में सरभंग इसमें विद्या को बनारस के राजा के धर्म उपदेशक का पुत्र बतलाया गया है इसमें विद्या अध्यन तक्षिला में हुआ था वे विज्ञानं एवं सर्व विद्या में अत्यंत निपूर्ण था शिक्षा प्राप्त कर जब वह बनारस लोटे तो उनको बनारस का सर्वोच्च सेनापति बना दिया गया परन्तु बाद में त्याग पत्र दे दिया इसके बाद सन्यास आश्रम ग्रहण कर गोदावरी नदी के किनारे पर कापिथ्य जंगल में अपनी कुटी बना ली उसके प्रथम शिष्य शालिषर उसकी आज्ञा से चन्द्रप्रधोत के राज्य में लम्भचुड स्थान पर निवास किया तथा उसके चतुर्थ शिष्य काल देवल ने दक्षिण पद पर अवंती की सीमा में धन्यशेल पर्वत पर निवास किया | उज्जयनी का संस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व इस कारन और भी बाद जाता है की यहाँ १२ वर्षो में होने वाले कुम्भ मेला लगता है ऐसे मेले १२ -१२ वर्ष में बारी बारी से गोदावरी तट पर नासिक गंगा तट पर हरिद्वार गंगा यमुना संगम पर प्रयाग में, इन मेलो में हिन्दू साधुओ...

दुर्गा सप्तसती से क्या लाभ मिलता है ।

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दुर्गाजी की महीमा नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्‌। मां दुर्गा साक्षात् शक्ति का स्वरूप है। दुर्गा देवी सदैव देवलोक, पृथ्वीलोक एवं अपने भक्तों की रक्षा करती है। दुर्गाजी संपूर्ण संसार को शक्ति प्रदान करती है। जब कोई मनुष्य किसी संकट या विपरित परिस्थितियों में फंस जाता है एवं उनकी शरण ग्रहण करता है तो वे उसे संघर्ष करने की शक्ति प्रदान करती है एवं उसे समस्याओं से छूटकारा प्राप्त करने में मदद करती है। इनका पूजन-पाठ आदि बडी विधि-विधान एवं ध्यान से करना चाहिए। इसमें किसी भी प्रकार की त्रृटि होने पर हानी होने की संभावना ज्यादा रहती है। देवी दुर्गा की उपासना करने वालों को भोग एवं मोक्ष दोनो प्राप्त हो जाते है एवं दुर्गाजी साधक की सभी कामनाओं की पूर्ति करती है। मां दुर्गा की कृपा से मनुष्य दुख, क्लेश, दरिद्रता आदि से मुक्त हो जाता है। दुर्गासप्तशती पाठ करवाने से लाभ दुर्गासप्तशती के पाठ करवाने से परिवार में सुख-शांति आदि का वातावरण निर्मित हो जाता है। दुर्गासप्तशती के पाठ करवाने से आकस्मिक संकट या अनहोनी की स्थिति टल जाती है। इसके ...

महामृत्युंजय मंत्र का रहस्य ।

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महामृत्युंजय मंत्र अनुष्‍ठान महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग अलग अभिप्राय हैं। ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठर के अनुसार 33 देवताआं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पुर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं । साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है । महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है । भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है। || महामृत्युंजय मंत्र || || ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मा मृतात् || महामृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ समस्‍त संसार के पालनहार तीन नेत्रो वाले शिव की हम अराधना करते है विश्‍व मे सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमे मुक्ति दिलाएं ।

जानिए क्या है रुद्राभिषेक क्या लाभ मिलता है रुद्राभिषेक करने से

रूद्राभिषेक अभिषेक का मतलब होता है – स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान शंकर को उनकी प्रसन्नता हेतु जल एवं रूद्र-मंत्रों के साथ करवाया जाता है इसको रूद्राभिषेक कहते हैं। जल की धारा शिवजी को अति प्रिय है। साधारण रूप से अभिषेक या तो जल या गंगाजल से होता है परंतु विशेष अवसर एवं विशेष प्रयोजन हेतु दूध, दही, घी, शकर, शहद, पंचामृत आदि वस्तुओं से किया जाता है। शिव को रूद्र इसलिए कहा जाता है – ये रूत् अर्थात् दुख को नष्ट कर देते है। आसुतोष भगवान सदाशिव की उपासना में रूद्राभिषेक का विशेष माहात्म्य है। वेद के ब्राहमण-ग्रन्थों में, उपनिषदों मंे, स्मृतियों में और पुराणों में रूद्राभिषेक के पाठ, जप आदि कि विशेष महिमा का वर्णन है। रूद्राध्याय के समान जपनेयाग्य, स्वाध्याय करनेयोग्य वेदों और स्मृतियों आदि में अन्य कोई मंत्र नहीं है। इस ग्रन्थ में ब्रह्म के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूपों का वर्णन है। मन, कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की आसक्तियों से रहित होकर भगवान सदाशिव की प्रसन्नता के लिए रूद्राभिषेक करना चाहिए। मनुष्य का मन विषयलोलुप हाकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित...

क्यों उज्जैन में निवास करते हैं शिव जी

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पौराणिक कथा का वर्णन शिव पुराण के अनुसार अपने भक्त भाह्मन की दूषण नामक देत्य से रक्षा करने के लिए उज्जैन में शिव जी प्रकट हुए शिव जी की हुकर से देत्य भस्म हो गया तब अपने चारो पुत्रो सहित भाह्मन ने शिव जी की प्रार्थना की दूषण संसार का काल था और अपने उसे भस्म किया अतः आपका नाम महाकाल हो और आप अपने भक्तो के समस्त मनोरत पूर्ण करे भाह्मन की प्रार्थना स्वीकार कर शिव जी उनके द्वारा स्थापित शिवलिंग में प्रवेश कर गए तब उन भाह्मनो ने पुत्र सहित कुछ ज्योतिर्लिंग का पूजन किया इसी प्रकार एक गोपी ने अपने पुत्र की ज्योतिर्लिंग विशेष भक्ति देखकर रजा चंद्रसेन के युग में एक मंदिर बनवाया था इसी गो बालक की आठवी पीडी नन्द हुई जिसके घर श्री कृष्ण ने लीला की और इसी कथा के अनुसार नन्द की आठवी पीडी पहले महाकाल की स्थापना हुई शिव जी के पंचमलिंग एवं अष्टमलिंग में भी महाकाल की गड़ना हुई है | स्कंद्पुरण में भी अवंतिका खंड के दुसरे अध्याय में भी महाकाल की कथा प्राप्त होती है तदनुसार प्रलय काल जब ना अग्नि थी ना वायु था ना आदित्य था ना ज्योति थी ना अंतरिक्ष था ना गृह थे ना देव – असुर गन्धर्व , पिचाश , नाग,राक्...

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का रहस्य ।

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महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर की महिमा अपरम्पार है इनकी सेवा में भगवान राम और कृष्ण में भी सादर अंजलि अर्पित की है अनेक कवि एवं वेदों में भगवान महाकालेश्वर की पूजन का अर्चन का एवं दर्शन का महत्व बताया है | महाकालेश्वर मंदिर की महिमा के लिए एवं विशिष्ट के लिए हमें मालवा भूमि की प्राग- एतिहासिक पूर्व की स्तिथि पर द्रष्टि पत करना होगा प्रलाय्कलिन – भारत की हमारे समक्ष की दुन्धली से कल्पना रेखा है जिसके पश्यात यदि कही मानव द्रष्टि के प्रारंभिक विस्तार का कारन स्थल ज्ञात होता है तो वह मालवा प्रदेश ही है और इसी कारण अवंती देश की पौराणिक विभिन्न नामावलिया रहस्य से परिपूर्ण है इसमें भी प्रतिकल्पा शब्द ऐसा है जो विभिन्न युगों में इस प्रदेश की अस्तित्व की सुचना देता है महा ऋषि वाल्मीकि देश प्रणित रामायण की पुरातनता इतिहास में निसंदिक्ध है की वैदिक रामायण युग में अवंतिका की आर्य संस्कृति की रक्षा विस्तार और व्यापकता एक नहीं अनेक परम सिद्ध है | उप्निशेद और असंख्य ग्रंथो में वरह्पुरण की उस पद संगती को सबल बनाया है जो इस भारत भूमि के नाभि देश अवस्था में शारीर शतर के मानव – मानचित्र ...

जानिए उज्जैन के महाकाल का इतिहास ।

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महाकाल का इतिहास भोज देव की म्रत्यु के बाद सन १०५५ ई. में जयसिंह और जयसिंह की म्रत्यु पर १०५९ उदयादित्य में शासन ग्रहण कीया सन १०६० में परमारों द्वारा गुजरात के सामंतो ने आक्रमण किया परन्तु वे हारकर भाग गए उदयसिंग के बाद में लक्ष्मण देव नरवर्म देव और देव पाल ने राज्य किया देवपाल के शासनकाल सन १२३५ में दिल्ली का अल्तमश भेलसा से चलकर उज्जैन आया और बुरी तरह से लुट अनेक देव मंदिर को तोड़ दिए उसके बाद मराठी राज्य स्थापित होते ही सन १७३७ के लगभग सिन्ध्या राज्य के प्रथम संस्थापक राणा जी सिन्ध्या ने यहाँ का राजकाज अपने दीवान रामचंद्र बाबा के हाथो में सोप दीया इसी समय उज्जैन के टूटे फूटे देव मंदिरों का जीर्ण उद्धार कराया गया | कर्म वीर दीवान रामचंद्र बाबा के हाथो उज्जैन में एक और महँ कार्य हुआ जिसके कारण उनका नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता | यह किवदंती है की रामचंद्र बाबा के पास प्राप्त संपत्ति थी परन्तु दुर्भाग्य से उनका कोई पुत्र कोई ना था | प्राचीन परम्पराव के अनुसार उनकी पत्नी अपने वंश को चलने के लिए दत्तक पुत्र को लेने में प्रयत्नशील थी उसका ध्यान विशेषकर अपने भाई के पुत्र की और था, किन...

आखिर क्यों की जाती है विश्वकर्मा भगवान की पूजा ।

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आखिर क्यों की जाती हैं विश्‍वकर्मा पूजा ! प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई मानी जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का स्वर्ग लोक, त्रेता युग की लंका, द्वापर की द्वारिका और हस्तिनापुर आदि जैसे प्रधान स्थान विश्वकर्मा के ही बनाए माने जाते हैं। सुदामापुरी भी विश्वकर्मा ने ही तैयार किया था। यह भी मान्यता है कि सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग की वस्तुएं विश्वकर्मा ने ही बनाई थी। कर्ण का कुंडल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, महादेव का त्रिशूल और यमराज का कालदंड भी उन्हीं की देन है। कहते हैं कि पुष्पक विमान का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया था। धर्मशास्त्रों में भगवान विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों और अवतारों का वर्णन है। विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्मा और भृगुवंशी विश्वकर्मा। ऋग्वेद में भी विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी गई हैं, जिनके प्रत्येक मंत्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि। ऋग्वेद में ही विश्वकर्मा शब्द एक बार इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। यदि आप धन-ध...

जानिये शुक्रवार को क्यों और कबसे होती है संतोषी माता की पूजा

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धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एक देवी हैं जिनका  शुक्रवार का  व्रत  किया जाता है। संतोषी माता के  पिता  का नाम  गणेश और  माता  का नाम रिद्धि-सिद्धि है। संतोषी माता के पिता गणेश और माता रिद्धि-सिद्धि धन, धान्य,  सोना ,  चाँदी ,  मूँगा , रत्नों  से भरा  परिवार  है। इसलिए उनकी प्रसन्न्ता परिवार में सुख-शान्ति तथा मनोंकामनाओं की पूर्ति कर शोक विपत्ति चिन्ता परेशानियों को दूर कर देती हैं। सुख-सौभाग्य की कामना से माता संतोषी के 16 शुक्रवार तक व्रत किये जाने का विधान है। स्नानादि के पश्चात घर में किसी सुन्दर व पवित्र जगह पर माता संतोषी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें। माता संतोषी के संमुख एक  कलश   जल  भर कर रखें। कलश के ऊपर एक कटोरा भर कर गुड़ व चना रखें। माता के समक्ष एक  घी  का  दीपक  जलाएं। माता को अक्षत,  फूल , सुगन्धित गंध,  नारियल , लाल वस्त्र या चुनरी अर्पित करें। माता संतोषी को गुड़ व चने का भोग लगाएँ। संतोषी माता की जय बोलकर माता की कथा आरम्भ करें। इस व्रत को...